May 19, 2007

भूमि अधिग्रहण अधिनियम : “लोक प्रयोजन” का व्यूह

१७ मई को देश के समाचार पत्रो मे भूमि अभिग्रहण के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के नजरिये पर रिपोर्ट देखने को मिला जिस पर १८ मई को मित्रो ने इस पर अपनी अपनी प्रतिक्रिया प्रस्तुत की है ।

दिल्ली से अधिवक्ता मित्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार रिट पिटीशन नं २२४/२००७, कर्नाटक भूमिहीन किसान संगठन व अन्य विरुद्ध भारत सरकार व अन्य दिनाक ११ मई को न्यायाधिपति आर वी रविंद्रन व एच एस बेदी के बेंच में नियत ईस प्रकरण की प्रारंभिक सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधिपति के जी बालकृशनन ने प्रकरण मे निहित विधि के प्रश्न “लोक प्रयोजन” पर कहा कि केंद्र व राज्य शासन को लोक प्रयोजन के मसले पर प्रस्तुत पिटीशनो पर भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्य उपबंधों के तहत प्रस्तुत पिटीशनो से ज्यादा गम्भीरता पुर्वक अपने दायित्वों को समझना चाहिये इस संबंध मे न्यायालया ने सभी राज्यो के मुख्य सचिव व कृषि मंत्रालय को नोटिस भेजा है ।

इस प्रकरण में भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा ३च, ४ व ६ एवं संविधान की धारा १४ समानता का अधिकार, २१ जीवन की व्यक्तिगत स्वतंत्रता सहित अन्य विधिक मुद्दे पर प्रश्न उठाये गये है जो पिछले माह समाचार मे छाये रहने वाले सेज, नंदीग्राम के विवाद के आधार है ईस पिटिशन में अतिरिक्त रूप से भारी मात्रा में भूमि अधिग्रहण व अधिनियम की धारा ३च लोक प्रयोजन के अर्थांवयन पर जोर दिया गया है । देखे अधिग्रहण समाचारो के अंश -

''ग्रामीण विकास मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थाई समिति ने देश की बदली हुई आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की पुरजोर माँग की है और इस परिवर्तन की खातिर इच्छाशक्ति की कमी के लिए सरकार की खिंचाई की है।
भाजपा के वरिष्ठ नेता कल्याण सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने अपनी २४वीं रिपोर्ट में कहा कि १८९४ में बना भूमि अधिग्रहण कानून अब पुराना और अप्रासंगिक हो गया है और ऐसे में बढ़ती हुई परिस्थतियों को देखते हुए इसमें पर्याप्त संशोधन की जरुरत है। रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति पहले भी इस कानून में संशोधन के लिए दबाव डालती रही है और संशोधन का प्रस्ताव मंत्रालय में काफी समय से लंबित पड़ा है। गौरतलब है कि देश में एसईजेड तथा तीव्र औद्योगिकरण के लिए भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों और सरकार के बीच विवाद बढते जा रहे हैं तथा राजनीतिक दल और नेता भी इस कानून में बदलाव की माँग करने लगे हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय के सचिव की यह दलील है कि भूमि राज्य का विषय है और इसलिए इस संबंध में केंद्रीय कानून नहीं बनना चाहिए। भूमि अधिग्रहण संशोधित कानून २००४ के मसौदे को राज्य सरकारों के पास भेजा गया है पर अभी तक सभी राज्यों ने इस पर अपनी राय नहीं भेजी है। इसलिए यह मसौदा अभी तक खटाई में पड़ा है।''

अब हम देखें भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत धारा ३ च का सहारा शासन कैसे लेती है और जनता इसमें कैसे पिसती है । धारा ३ च, भूमि के अधिग्रहण के कारण को बतलाने वाली धारा है जिसमें अधिग्रहण का कारण है ``लोक प्रयोजन`` अब लोक प्रयोजन का अर्यान्वयन क्या होना चाहिए यही से खेल प्रारंभ होता है यह विधि का प्रश्न है हजारों प्रकरण इसी तालमेल में कलेक्टर से जिला न्यायालय, जिला न्यायालय से उच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक बरसों से चर्चा के विषय में रहे हैं । अलग-अलग प्रकरणों में न्यायालय ने ``लोक प्रयोजन`` को परिभाषित किया है पर पिटीशनर को सफलता जब तक मिलती है तब तक मामला ठंडा हो जाता है और राज्य शासन के पास इस अधिनियम का डंडा बजाने की शक्ति पुन: जीवित हो जाती है, लोग अपने ही प्रयोजन के लिए रचित सरकारी तानेबाने में पिसते रहते है ।


मै इस समाचार को छत्तीसगढ के नजरिये से देखते हुये अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूं यहा शासन ने लोक प्रयोजन शब्द को अपने हित मे अर्थान्वयन करवाने के लिये जो व्यूह रची यह देखे :-

छत्तीसगढ में अभी टाटा के संयंत्र के लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया जारी है जहा अधिग्रहण पूरी तरह से विवादित है नक्सलियो की जन अदालत की तर्ज पर ग्राम सभा मे प्राप्त किसानों की स्वीकृति व १३ लकीरों मे छिन चुकी आदिवासियो की भूमि पर आप रोज पढ रहे होंगे हम इस संबध मे कुछ भी नही कहेंगे ।

नये राज्य की राजधानी के लिये भारी मात्रा मे किये जा रहे भूमि अधिग्रहण के मसले पर हम कुछ नजर दौडायें, नया रायपुर विकास प्राधिकरण द्वारा नये रायपुर का मास्टर प्लान प्रकाशित किया जा चुका है एवं उस पर दावा आपत्ति भी स्वीकार करने का समय समाप्त हो चुका है । नया रायपुर विकास प्राधिकरण एवं छ.ग. शासन के द्वारा नये रायपुर के लिये भी अधिग्रहित की जाने वाली भारी मात्रा में भूमि को टाटा संयंत्र की भांति विवाद से परे रखने के लिए रणनीति के तहत आज दिनांक तक भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना जारी नहीं की गई है बल्कि भूमि अधिग्रहण के पिछले द्वार से प्रवेश की कार्यवाही आपसी सहमति के जरिये की जा रही है यह शासन की भूमि अधिग्रहण के पचडे से बचने की एक सोची समझी चाल है । हुडा (हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण) के नीतियों पर अमल करते हुए छ.ग. शासन, वहां आई व्यावहारिक दिक्कतों को प्रशासनिक तौर पर दूर करने के उददेश्य से आपसी समझौते पर ही ज्यादा जोर दे रही है क्योंकि भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत भूमि अधिग्रहण् में विभिन्न राज्य सरकारें सर्वोच्च न्यायालय के कटघरे में है एवं जनता भी अधिग्रहण के रास्ते में नित नये रोडे अटका रही है । ऐसे में विकास की धारा को विवादों से गंदला करने के बजाय दूसरे वैकल्पि रास्तों को प्रभावी बनाना सरकार की विवशता है ।

नया रायपुर विकास प्राधिकरण द्वारा नगर तथा ग्राम निवेश अधिनियम के तहत प्रकाशित डाफट, भूमि अधिग्रहण के पूर्व किसानों के अटकलों पर एवं छुटपुट उठते विरोधों को दबाने का एक अस्त्र के रूप में प्रयोग है । छोटे किसान जिनके रोजी-रोटी का साधन उसकी भूमि है, पर शासन पिछले चार वर्षो तक विक्रय पंजीकरण नहीं करने का
आदेश तो दे ही चुकी थी । समाचारों में रोज छपता रहा कि किसी की बेटी का ब्याह तो किसी का और अन्य अहम आवश्यकता की पूर्ति उनके स्वयं की भूमि को विक्रय नहीं कर पाने के कारण हो नहीं पाई थी, सरकार के इस मार से किसान पहले से ही आधा हो गया था आपसी सहमती का चोट ऐसे ही समय में गरम लोहे पर हथौडा मारने वाला काम था, अब वे सभी किसान इस डर से राजीनामा कर पैसा ले लिए कि पता नहीं कल क्या तुगलकी फैसला हो और उन्हें फिर पांच साल तक बिना पैसे का गुजारा करना पडे ।

ऐसा करके शासन अधिकांशत: जमीन अधिग्रहित कर लेगी बाकी बचे जमीन राज्य शासन द्वारा अधिनियम के तहत अधीसूचना जारी कर डंडे के जोर पर छीन ली जायेगी । क्योंकि तब बहुसंख्यकों का विरोध सरकार को नहीं झेलना पडेगा और बिना विवाद काम निपट जायेगा । इस चाल का एक और पेंच है चीफ कमिशनर देहली एडमिनिस्ट्रेशन बनाम धन्ना सिंह 1987 के केस में न्यायालय नें मास्टर प्लान के लिए अधिग्रहण को लोक प्रयोजन की कोटि का माना है तो मास्टर प्लान यदि स्वीकृत हो गया तो सरकार की दिक्कते अपने आप सुलझ जायेगी । यहा नये रायपुर परिक्षेत्र मे आने वाले गाव के लोग समझ रहे है कि अभी तो धारा 4 की अधिसूचना तो जारी ही नही हुयी है जब जारी होगी तो लोक प्रयोजन की आपत्ति लगायेगे मगर तब तक देर हो चुकी होगी लोक प्रयोजन सिद्ध हो चुका होगा, यही है अधिनियम को अपने पक्ष मे करने का गुपचुप तरीका । हमने इस स्थिति को भांप कर 5 मइ 2007 तक गांवो के किसानो को जोडा और मास्टर प्लान ड्राफ्ट पर आपत्ति लगाया है हमारे साथ 400 से 500 लोगो ने आपत्ति लगाया है पर वे सभी सरकार की मंशा को समझ रहे है हमें नही लगता ।

सन १८९४ में बने अधिनियम की प्रयोज्यता के संबंध में जो प्रयोग हो रहे हैं वह प्रशंसनीय है नये परिस्थितियों के अनुसार इस अधिनियम में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है । कृषि प्रधान देश में कृषि भूमि का भारी मात्रा में अर्जन कहां का लोक प्रयोजन है यह परिस्थितियां एवं इस अधिनियम के पुर्ननिर्माण के लिए गठित कमेटी ही बतलायेगी ।

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